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(६७९) है कि- "धर्ममें प्रमाद करनेवाला मनुष्य जो कुछ अपना नुकसान करलेता है, वह चोरके लूटनेसे, अग्निके जलानेसे अथवा जूआमें हार जानेसे भी नहीं होता" ज्ञानीका यह वचन सुन वह श्रेष्ठी सकुटुम्ब नित्य धर्मकृत्यों में सावधान होगया, और अपनी सर्वशक्तिसे सर्वपाकी आराधना करने लगा, व अत्यन्त ही अल्प आरंभ करके तथा बराबर व्यवहारशुद्धि रखकर व्यापारादि बीजप्रमुख पर्वके ही दिन करता था, अन्य समय नहीं. जिससे सर्वग्राहकोंको विश्वास होगया. सब उसीके साथ व्यवहार करने लगे. थोडे ही समयमें वह करोडों स्वर्णमुद्राओंका अधिपति होगया. कौआ, कायस्थ और कूकडा ( मुर्गा ) ये तीनों अपने कुलका पोषण करते हैं, और वणिक, श्वान, गज तथा ब्राह्मण ये चारों जने अपने कुलका नाश करते हैं, ऐसी कहावत है. तदनुसार दूसरे वणिक्लोगोंने डाह (अदेखाई) से राजाके पास चुगली खाई कि, इसको करोडों स्वर्णमुद्राओंका निधान मिला है. जिससे राजाने श्रेष्ठीको धनकी बात पूछी. श्रेष्ठीने कहा- 'मैंने स्थूलमृषावाद स्थूलअदत्तादान आदिका गुरुके पास नियम लिया है." पश्चात् अन्यवणिकोंके कहनेसे राजाने 'यह धर्मठग है' ऐसा निर्धारित कर उसका सर्वधन जप्त करके उसे तथा उसके परिवारको अपने महलमें रखे श्रेष्ठीने मनमें विचार किया कि- 'आज पंचमी