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(६७७) उसे बहुत समझाया. धनेश्वरश्रेष्ठोने भी " राजदंड होनेसे धर्मकी हीलना आदि न हो" यह सोच 'रायाभिओगणं' ऐसा आगार है, इत्यादि युक्ति बताई, तो भी धोबीने 'दृढताके बिना धर्म किस कामका ?' यह कह कर अपने नियमकी दृढता नहीं छोडी, और ऐसे संकटसमयमें भी किसीका कहना न माना. अपने मनुष्योंके कहनेसे राजा भी रुष्ट हुआ और कहने लगा कि, 'मेरी आज्ञाका भंग करेगा तो प्रातःकाल इसको तथा इसके कुटुम्बको शिक्षा करूंगा.' इतनेमें कर्मयोगसे उसी रात्रिको राजाके पेटमें ऐसा शूल हुआ कि, जिससे सारे नगरमें हाहाकार मच गया. इस तरह तीन दिन व्यतीत होगये. धोबीने यथाविधि अपने नियमका पालन किया. पश्चात् प्रतिपदा( पडवा ) के दिन राजा तथा रानीके वस्त्र धोये. और बीजके दिन राजपुरुषोंके मांगते ही तुरंत दे दिये. इसी प्रकार किसी आवश्यकीय कारणसे बहुतसे तैलकी आवश्यकता होनेसे राजाने श्रावकतेलीको चतुर्दशीके दिन घाणी चलानेका हुक्म दिया. तेलीने अपने नियमकी दृढता बताई, जिससे राजा रुष्ट होगया. इतने ही में परचक्र आया. राजाको सेना लेकर शत्रुके सन्मुख जा संग्राममें उतरना पडा. और राजाकी जय हुई. परन्तु राजाके इस कार्यमें व्यग्र होजानेसे तेलकी आवश्यकता न हुई, और तेलीका नियम पूर्ण हुआ. एक समय राजाने अष्टमीके शुभमुहूर्तमें उस श्रावक कौटुंबिक ( कुनबी-कृषक) को हल चलानेकी आज्ञा दी.