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हे गौतम ! नारकी जीव नरकमें जो तीत्र दुःख पाते हैं, उसकी अपेक्षा अनन्तगुणा दुःख निगोदमें जानो। तियंच भी चाबुक, अंकुश, परोणीआदिकी मार सहते हैं इत्यादि । मनुष्य भवमें भी गर्भवास, जन्म, जरा, मरण, नानाविध पीडा, व्याधि, दरिद्रता आदि उपद्रव होनेसे दुःख ही हैं। कहा है कि- हे गौतम ! अग्निमें तपाकर लालचोल करीहुई सुइयां एक समान शरीरमें चुमानेसे जितनी वेदना होती है. उससे आठ. गुणी वेदना गर्भवासमें हैं । जब जीव गर्भसे बाहिर निकलते ही योनियंत्रमें पीलाता है तब उसे उपरोक्त वेदनासे लक्षगुणी अथवा कोटाकोटीगुणी वेदना होती है । बंदीखानेमे कैद, वध, बंधन, रोग, धननाश, मरण, आपदा, संताप, अपयश, निंदा आदि दुःख मनुष्यभवमें हैं। कितनेही मनुष्य मनुष्यभव पाकर घोरचिंता, संताप, दारिद्य और रोगसे अत्यंत उद्वेग पाकर मर जाते हैं। देवभवमें भा च्यवन, पराभव, डाह आदि हैं ही । कहा है कि- डाह ( अदेखाई ), खेद, मद, अहंकार, क्रोध, माया, लोभ इत्यादि दोषसे देवता भी चिपटे हुए हैं। इससे उनको सुख कहांसे होवे ? इत्यादि ।
धर्मके मनोरथोंकी भावना इस प्रकार करना चाहियेश्रावकके घरमें ज्ञानदर्शनधारी दास होना अच्छा; परंतु मिथ्यात्वसे भ्रमित बुद्धिवाला चक्रवर्ती भी अन्य जगह होना ठीक नहीं । मैं स्वजनादिकका संग छोडकर कब गीतार्थ और