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जाति ज्ञाति के आडम्बर से कुछ नहीं होता. वनमें उत्पन्न हुआ पुष्प ग्रहण किया जाता है, और प्रत्यक्ष अपने शरीर से उत्पन्न हुआ मल त्याग दिया जाता है. गुणहीसे जगत् में महिमा बढती है, स्थूल शरीर अथवा पकी हुई बडी अवस्था (वय) से महिमा नहीं बढती देखो, केवडे बडे और जूने पत्ते अलग रह जाते हैं, पर भीतर के छोटे २ नये पत्तोंको सुगंधित होनेसे सब कोई स्वीकारते हैं. इसी प्रकार जिससे कषायादिककी उत्पत्ति होती हो; उस वस्तुका अथवा उस प्रदेशका त्याग करने से उन दोषोंका नाश होजाता है. कहा है कि जिस वस्तु से कषायरूप अग्नी उत्पत्ति होती है, उस वस्तुको त्याग देना, और जिस वस्तुसे कषायका उपशम होता हैं उस वस्तुको अवश्य ग्रहण करना चाहिये. सुनते हैं कि, स्वभावही से क्रोधी चंडरुद्र आचार्य, क्रोधकी उत्पत्ति न होनेके हेतुसे शिष्योंसे अलग रहे थे.
संसारकी अतिशय विषमस्थिति- प्रायः चारों गतिमें अत्यन्त दुःख भोगा जाता हैं, उस परसे विचारना, जिसमें नारकी और तिर्यच इन दोनों में अतिदुःख है वह तो प्रसिद्धही है. कहा है कि--सातों नरकभूमिमें क्षेत्रवेदना और बिना शस्त्रएक दूसरेको उपजाई हुई वेदना भी है. पांच नरकभूमिमें शस्त्र जन्य वेदना है और तीन में परमाधार्मिकदेवताकी करी हुई वेदना भी हैं. नरक में अहर्निश पडे हुए नारकीजीवोंको आंख बन्द हो इतने काल तक भी सुख नहीं, लगातार दुःखही दुःख है.