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(६५५) काम! जानामि ते मूलं, संकल्पात् किल जायसे ।
तमेव न करिष्यामि, प्रभविष्यसि मे कुतः ? ॥१॥ हे कामदेव ! मैं तेरी जड जानता हूं. तू विषयसंकल्पसे उत्पन्न होता है. इसलिये मैं विषयसंकल्पही न करूं. जिससे तू मेरे चित्तमें उत्पन्नही न होगा. इस विषयमें स्वयं नई विवाहित आठ श्रेष्ठिकन्याओको प्रतिबोध करनेवाले और निन्यानवे करोड स्वर्णमुद्रा बराबर धनका त्याग करनेवाले श्रीजम्बूस्वामीका, कोशावेश्यामें आसक्त हो साढे बारह करोड स्वर्णमुद्राएं व्ययकर कामविलास करनेवाले तत्काल दीक्षा ले कोशाके महलहीमें चातुर्मास रहनेवाले श्रीस्थूलभद्रस्वामीका तथा अभयारानीके किये हुए नानाविधि अनुकूल तथा प्रतिकूल उपसर्गसे मनमें लेशमात्र भी विकार न पानेवाले सुदर्शनश्रेष्ठीआदिका दृष्टान्त प्रसिद्ध है; इसलिये उनके सविस्तार कहनेकी आवश्यकता नहीं.
कषायआदि दोषों पर जय-उन दोषोंकी मनमें उलटी भावना आदि करनेसे होता है. जैसे क्रोध पर जय क्षमासे, मान पर निरभिमानपनसे, माया पर सरलतासे, लोभ पर सन्तोषसे, राग पर वैराग्यसे, द्वेष पर मित्रतासे, मोह पर विवेकसे, काम पर स्वीके शरीर ऊपर अशुचिभावना करनेसे, मत्सर पर दूसरोंकी बढ़ी हुई संपदा देखने में आवे तो भी डाह न रखनेसे, विषय पर इंद्रियदमनसे, मन, वचन, कायाके अशुभ योग पर त्रिगुप्ति.