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(६५६) से, प्रमाद पर सावधान रहनेसे और अविरति पर विरतिसे सुख पूर्वक जय होती है. तक्षकनागके मस्तक पर स्थित मणि ग्रहण करना, अथवा अमृत पान करना, ऐसे उपदेशके समान यह बात होना अशक्य है; ऐसी भी मनमें कल्पना नहीं करनाः साधु मुनिराज आदि उन दोषोंका त्याग करके सद्गुणी हुए प्रत्यक्ष दृष्टिमें आरहे हैं. तथा दृढप्रहारी, चिलातीपुत्र, रोहिणेयचोर आदि पुरुषोंके दृष्टान्त भी इस विषय पर प्रसिद्ध हैं. कहा है कि-हे लोगों ! जो जगत्में पूजनीय होगये, वे प्रथम अपने ही समान सामान्य मनुष्य थे; यह समझकर तुम दोषका त्याग करनेमें पूर्ण उत्साही होवो ऐसा कोई क्षेत्र नहीं कि, जिसमें सत्पुरुष उत्पन्न होते हैं ! और शरीर इंद्रियां आदि वस्तुएं जैसे मनुष्यको स्वभावतः होती हैं, उस प्रकार साधुत्व स्वाभाविक नहीं मिलता; परन्तु जो पुरुष गुणोंको धारण करता है, वही साधु कहलाता है, इसलिये गुणोंको उपार्जन करो.
अहो ! हे प्रियमित्र विवेक ! तू बहुत पुण्यसे मुझे मिला है. तू मुझे छोडकर कहीं मत जा. मैं तेरी सहायतासे तुरन्तही जन्म तथा मरणका उच्छेद करता हूं. कौन जाने ? पुनः तेरा व मेरा मिलाप हो कि न हो. ॥ प्रयत्न-उद्यम करनेसे गुणोंकी प्राप्ति होती है, औरै प्रयत्न करना अपनेही हाथमें है. ऐसा होते हुए " अमुक बड़ा गुणी है" यह बात कौन जीवित पुरुष सहन कर सकता है ? गुणहीसे सन्मानकी प्राप्ति होती है.