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धर्मज्ञानी पुरुषने सर्व जानवर तथा बन्धनमें रखे हुए लोगों की सार सम्हाल करके पश्चात् भोजन करना चाहिये. भोजन में सदैव सात्म्य वस्तु व्यवहारमें लेना चाहिये. आहार, पानी आदि वस्तु स्वभाव के प्रतिकूल हों तो भी किसीको वे अनुकूल होती हैं, इसे सात्म्य कहते हैं. जन्मसेही प्रामाणिक विष भक्षण करने की आदत डाली होवे तो वह विषही अमृत समान होता है; और वास्तविक अमृत हो तो भी किसी समय उपयोग न करने से प्रकृतिको अनुकूल न हो तो वही विष समान होजाता है, ऐसा नियम है, तथापि पथ्यवस्तुका साम्य न हो तो भी उसीको उपयोगमें लेना, और अपथ्य वस्तु सात्म्य होवे तो भी न वापरना चाहिये " बलिष्ठ पुरुषको सर्व वस्तुएं पथ्य ( हितकारी) हैं. " ऐसा सोचकर कालकूट विष भक्षण करना अनुचित है. विषशास्त्रका जाननेवाला मनुष्य सुशिक्षित होता है, तोभी किसी समय विष खानेसे मृत्युको प्राप्त होजाता है. और भी कहा है कि--जो गले के नीचे उतरा वह सब अशन कहलाता है. इसीलिये चतुरमनुष्य गलेके नीचे उतरे वहां तक क्षणमात्र सुखके हेतु जिव्हाकी लोलुपता नहीं रखते. ऐसा वचन है, अतएव जिव्हाकी लोलुपता भी छोड देनी चाहिये. तथा अभक्ष्य, अनंतकाय और बहुत सावद्य वस्तु भी व्यवहार में न लाना चाहिये. अपने अग्निबलके अनुसार परिमित भोजन करना चाहिये. जो परिमित भोजन करता है, वह बहु भोजन करने के समान