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हो उतने लंघन करना. परंतु वायुसे, थकावटसे, क्रोधसे, शोकसे, कामविकार से और प्रहार होनेसे उत्पन्न हुए ज्वरमें लंघन न करना चाहिये, तथा देव, गुरुको वन्दनादिकका योग न हो; तीर्थ अथवा गुरुको वन्दना करना होवे, विशेष व्रत पच्चखान लेना होवे, महान पुण्यकार्य आरम्भ करना होवे उस दिन व अष्टमी, चतुर्दशीआदि श्रेष्ठपर्व के दिन भी भोजन नहीं करना चाहिये. मासक्षमण आदि तपस्या से इस लोक परलोकमें बहुत गुण उत्पन्न होते हैं. कहा है कि तपस्या से अस्थिर कार्य हो वह स्थिर, टेढा हो वह सरल, दुर्लभ हो वह सुलभ तथा असाध्य हो वह सुसाध्य हो जाता है । बासुदेव, चक्रवर्तीआदि लोगों के समानदेवताओंको अपना सेवक बना लेना आदि इसलोक कार्य भी अट्टम आदि तपस्या ही से सिद्ध होते हैं; अन्यथा नहीं
सुश्रावक भोजन करनेके उपरांत नवकार स्मरण करके उठे और चैत्यवंदनविधि से योगानुसार देव तथा गुरुको वन्दना करे. उपस्थितगाथा में " सुपत्तदाणाइजुत्तिए" इस पदमें आदि शब्दका ग्रहण किया है इससे यह सर्व विधिसूचित की गई है।
अब गाथा के उत्तरार्द्धकी व्याख्या करते हैं- भोजन करनेके बाद दिवसचरिम अथवा ग्रंथिसहित आदि गुरुप्रमुखको दो बार वन्दना करके ग्रहण करना, और गीतार्थ --