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ध्यान होता है. सिद्धान्तमें भी कहा है कि भंगिकश्रुतकी गणना करनेवाला मनुष्य त्रिविधध्यानमें प्रवृत होजाता है.
इस प्रकार स्वाध्याय करनेसे धर्मदासकी भांति अपने आपको कर्मक्षयादि तथा दूसरोंको प्रतिबोधादिक बहुत गुण प्राप्त होता है यथाः--
धर्मदास नित्य सन्ध्यासमय देवसीप्रतिक्रमण करके स्वाध्याय करता था. उसका पिता सुश्रावक होते हुए भी स्वभावहीसे बडा क्रोधी था. एकसमय धमदासने अपने पिताको क्रोधका त्याग करनेके हेतु उपदेश किया. जिससे वह (पिता) बहुत कुद्ध हो गया और हाथमें लकडी ले, दौडते रात्रिका समय होनेसे थम्भेसे टकराकर मर गया और दुष्टसर्पकी योनिमें गया. एक समय वह दुष्ट सपे अन्धकारमें धर्मदासको डसनेके लिये आ रहा था. इतने में स्वाध्याय करनेको बैठे हुए धर्मदासके मुख मेंसे उसने निम्नोक्त गाथा सुनीः--
तिव्वपि पुव्वकोडीकयंपि सुकयं मुहुत्तमित्तेण ॥ कोहग्गहिओ हणिलं, हहा हवइ भवदुगेवि दुही ॥१॥ इत्यादि. . इस स्वाध्यायके सुनते ही उस सर्पको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे वह अनशन कर सौधर्मदेवलोकमें देवता हुआ, और पुत्र (धर्मदास ) को सर्वकार्यों में सहायता देने लगा। एक समय स्वाध्यायमें लयलीन होते ही धर्मदासको