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केवलज्ञान उत्पन्न हुआ इत्यादि । इसलिये स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये।
पश्चात् श्रावकने सामायिक पारकर अपने घर जाना, और अपनी स्त्री, पुत्र, मित्र, भाई, सेवक, बहीन, पुत्रवधू, पुत्री, पौत्र, पौत्री, काका, भतीजा, मुनीम, गुमास्ता तथा अन्यस्वजनोंको भी उनकी योग्यतानुसार धर्मोपदेश देना । उपदेशमें सम्यक्त्वमूल बारह व्रत ग्रहण करना, सर्व धर्मकृत्योंमें अपनी संपूर्णशक्तिसे यतना आदि रखना, जहां जिनमंदिर तथा साधर्मि न हो ऐसे स्थानमें न रहकर कुसंगतिआदिको त्यागना, नवकारकी गणना करना, त्रिकाल चैत्यवंदन तथा जिनपूजा करना, पच्चखान आदि अभिग्रह लेना, शक्तिके अनुसार धर्मके सातक्षेत्रोंमें धनका ब्यय करना इत्यादि विषय कहना चाहिये, दिनकृत्यमें कहा है कि- जो पुरुष अपने स्त्री, पुत्र आदिको सर्वज्ञप्रणीत धर्म में नहीं लगाता है, तो वह ( गृहस्थ ) इस लोक तथा परलोकमे उनके ( स्वजनोंके ) किये हुए कुकर्मोंसे लिप्त होता है, कारण कि, लोकमें यही रीति है। जैसे चोरको अन्नपान आदि वस्तुसे सहायता देनेवाला मनुष्य भी चोरीके अपराधमें सम्मिलित किया जाता है, वैसा ही धर्मके विषयमें समझो । इसलिये तत्त्वज्ञाता श्रावकने प्रतिदिन स्त्री, पुत्र आदिको द्रव्यसे यथायोग्य वस्त्रादि देकर तथा भावसे धर्मोपदेश करके उनकी भली बुरी अवस्थाकी खबर लेना चाहिये । “पोष्य