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विहार करने पर, रात्रिमें निद्राके अंत में तथा स्वप्न देखने के बाद, इसी तरह नाव में बैठना पडे तो तथा नदी उतरना पडे तो इरिया ही करना, ऐसा वचन है । दूसरे श्रावकको साधुकी भांति इरियाही में काउस्सग्ग व चोवीसत्थो जैसे कहे हैं, उसी प्रकार साधुकी भांति प्रतिक्रमण भी क्यों नहीं कहा जाता ? इसके अतिरिक्त श्रावकने साधुका योग न होवे तो चैत्य तत्संबंधी पाषधशाला मे अथवा अपने घर में सामायिक तथा आवश्यक ( प्रतिक्रमण ) करना । इस प्रकार आवश्यकचूर्णि में भी सामाकिसे आवश्यक पृथक कहा है । वैसे ही सामायिकका काल भी नियमित नहीं । कारण कि, " जहां विश्रांति ले, अथवा निर्व्यापार बैठे, वहां सर्वत्र सामायिक करना " व " जब अवसर मिले तब सामायिक करना । " इसमें कुछ भी बाधा नहीं होती, ऐसे चूर्णिके प्रमाणभूत वचन हैं ।
अब “सामाइअमुभयसंझं" ऐसा जो वचन है, वह सामायिक प्रतिमाकी अपेक्षा से कहा है । कारण कि, वहीं सामायिकका नियमित काल सुननेमें आता है । अनुयोगद्वारसूत्र में तो श्रावकको प्रतिक्रमण स्पष्ट कहा है, यथा: - साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविका ये सब अपने चित्त, मन, लेश्या, सामान्य अध्यवसाय, तीव्र अध्यवसाय तथा इंद्रियां भी आवश्यक ही में तल्लीन कर तथा अर्थ पर भली भांति ध्यान रख कर आवश्यक ही की भावना करते प्रातःकाल तथा संध्याको आवश्यक करे ।