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पुव्वं व पुत्तिपेहण--वंदणमालोअ सुत्तपढगं च ॥ वंदण खामणवंदण--गाहातिगपढगमुस्लग्गो ॥ २२ ॥
अर्थ:-पूर्वकी भांति मुहपत्तिकी पडिलहणा, वंदना तथा आलोचना और प्रतिक्रमण सूत्रका पाठ करना तत्पश्चात् वंदना, खामणा, पुनः वंदना कर आयरिअ उवज्झाए इत्यादि तीन गाथाएं कह काउस्सग्ग करना ॥२२॥
रस्थ य चिंतइ संजम--जोगाण न होई जेण मे हाणी ॥ तं पडिवज्जामि तवं, छम्मासं ता न काउमलं ॥ २३ ॥
अर्थः-उस काउस्सग्गमें इस प्रकार चितवन करे कि, " जिससे मेरे संयमयोगकी हानि न हो, उस तपस्याको मैं अंगीकार करूं. प्रथम छःमासी तप करनेकी तो मेरेमें शक्ति नहीं ॥ २३॥ ___एगाइ इगुणतीसूणयपि न सहो न पंचमासमवि ॥
एवं चउ-ति-दु-मासं, न समत्थो एगमासंपि ॥ २४ ॥
अर्थः-छामासीमें एक दिन कम, दो दिन कम ऐमा करते उन्तीस दिन कम करें तो भी उतनी तपस्या करने की मुझमें शक्ति नहीं, वैसे ही पंचमासी, चौमासी, त्रिमासी, द्विमासी तथा एक मासखमण भी करनेकी मेरेमें शक्ति नहीं ॥ २४॥
जा तंपि तेरसूणं, चउतीसइमाइ णो दुहाणीए । जा चउथं तो आयं-बिलाइ जा पोरिसी नमो वा ॥ २५ ॥