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पुण पणवीसोस्सासं, उस्सगं कुणइ पारए विहिणा ॥ तो सयलकुसलकिरिआ-फलाण सिद्धाण पढइ थयं ॥ १४ ॥
अर्थः-पश्चात् पचीस उश्वासका काउस ग्ग करना व यथाविधि पारना. तत्पश्चात् सकलशुभक्रियाओंका फल पाये हुए सिद्धपरमात्माका स्तव कहना ॥ १४ ॥
अह सुअसमिद्धिहे, सुअदेवीए करेइ उस्सग्गं । चिंतेइ नमोकारं, सुणइ व देई व तीइ थुई ॥ १५ ॥
अर्थः -पश्चात् श्रुतसमृद्धि के निमित्त श्रुतदेवीका काउस्सग्ग करे, और उसमें नवकार चितवन करे. तदनंतर श्रुतदेवीकी स्तुति सुने अथवा स्वयं कहे ।। १५ ॥
एवं खेत्तसुरीए, उस्सग्गं कुणइ सुणइ देइ थुई ।। पढिऊण पंचमंगलमुत्रविसइ पमज्ज संडासे ॥ १६ ॥
अर्थः-इसीप्रकार क्षेत्रदेवीका काउस्सग्ग कर उसकी स्तुति सुने अथवा स्वयं कहे, पश्चात् पंचमंगल कह संडासा (संधि ) प्रमार्जन करके नीचे बैठे ॥ १६ ॥
पुत्रविहिणेव पेहिअ, पुत्तिं दाऊण वंदणं गुरुणो ॥ इच्छामो अणुसहिति भणिअ जाणूहि तो ठाई ॥१८॥
अर्थः-पश्चात् पूर्वोक्त विधि ही से मुहपत्ति पडिलहण कर गुरुको वंदना करे। तत्पश्चात् " इच्छामो अणुसहि" कह घुटनों पर बैठे ॥ १७॥