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इसलिये मुझ अज्ञानीमनुष्यसे जो कुछ अपमान हुआ है उसे क्षमा कर. हे राक्षसराज ! तेरी भक्तिको देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूं, अतएव तू वर मांग. तेरा कोई कष्टसाध्य कार्य होगा, तो भी मैं क्षणमात्र में कर दूंगा इसमें शक नहीं. " कुमारके इन वचनों से चकित हो राक्षस मनमें सोचने लगा कि, " अरे ! यह तो विपरीत बात होगई ! देवता होते हुए मुझ पर यह मनुष्य प्राणी प्रसन्न हुआ ! मुझसे न बन सके ऐसा कष्टसाध्य कार्य यह सहज में कर डालने की इच्छा करता है ! बडेही आश्चर्य की बात है कि, नवाणका जल कुए में प्रवेश कराना चाहता है ! आज कल्पवृक्ष अपने सेवक के पाससे अपना वांछित पूर्ण करने की इच्छा करता है, सूर्य भी प्रकाशके निमित्त किसी अन्यकी प्रार्थना करने लगा ! मैं श्रेष्ठदेवता हूं यह मनुष्य मुझे क्या दे सकता है ? तथा मेरे समान देवता इससे क्या मांगें ? तो भी कुछ मांगू ? यह विचारकर राक्षसने उच्चस्वरसे कहाकि, "जो दूसरोंको इच्छित वस्तु दे, ऐसा पुरुष त्रैलोक्य में भी दुर्लभ है. इससे मांगनेको इच्छा होते हुए भी मैं क्या मांगू? " मैं मांगूं " ऐसा विचार मनमें आतेही मनमेंके समस्त सद्गुण और "मुझे दो" यह वचन मुखमेंसे निकालते ही शरीरमेंके समस्त सद्गुण मानो डरसे भाग जाते हैं. दोनों प्रकार के मार्गण ( वाण और याचक ) दूसरोंको पीडा करनेवाले तो हैं ही; परन्तु उसमें आश्चर्य यह है कि, प्रथम तो