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मिलजानेसे उसने धर्म और काम इन दो पुरुषार्थों ही का परस्पर बाधा न आवे इस रीति से सम्यक्प्रकार से साधन किया. उसने रथयात्राएं, तीर्थयात्राएं, अरिहंतकी चांदीकी, सुवर्णकी तथा रत्नकी प्रतिमाएं, उनकी प्रतिष्ठाएं, जिनमंदिर, चतुर्विध संघका वात्सल्य, अन्य दीनजनोंपर उपकारआदि उत्तमोत्तम कृत्य चिरकाल तक किये. ऐसे श्रेष्ठ कृत्य करना यही लक्ष्मीका फल है. उसके सहवाससे उसकी दोनों स्त्रियां भी उसीके समान धर्मनिष्ठ हुई. सत्पुरुषोंके सहवाससे क्या नहीं होता ? अन्तमें आयुष्य पूर्ण होनेपर दोनों स्त्रियोंके साथ शुभध्यानसे देह त्यागकर बारहवें अच्युतदेवलोक में गया. यह गति श्रावक के लिये उत्कृष्ट मानी गई है, रत्नसारकुमारका जीव वहांसे व्यव कर महाविदेहक्षेत्र में अवतरेगा, और जैनधर्मकी सम्यक्री तिसे आराधना कर शीघ मोक्षसुख प्राप्त करेगा । इस प्रकार उपरोक्त चरित्रको बराबर ध्यानमें लेकर भव्यजीवोंने पात्रदानमें तथा परिग्रहपरिमाणत्रत आदरने में पूर्ण प्रयत्न करना चाहिये.
साधुआदिका योग होवे तो ऊपरोक्त कथनानुसार यथाविधि पात्रदान अवश्य करे. वैसे ही भोजन के समय पर अथवा पहिले आये हुए साधर्मियोंको भी यथाशक्ति अपने साथ भोजन करावे । कारण कि साधर्मी भी पात्रही कहलाता है. साधर्मि - वात्सल्य की विधिआदिका वर्णन आगे करेंगे. इसी प्रकार दूसरे भी भिखारी आदि लोगों को उचित दान देना, उनको निराश