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वहां तक ही कपुर खाना चाहिये । विचक्षण पुरुषोंने सरलता, शरम, लोभआदि गुण शरीर के समान बाह्य समझना और स्वीकार किया हुआ व्रत अपने जीवके समान मानना चाहिये । तुम्बेका नाश होने पर नदीकिनारे जानेसे क्या प्रयोजन ? राजाका नाश होने पर योद्धाओंका क्या प्रयोजन ? मूल जल जाने पर विस्तारका क्या प्रयोजन ? पुण्यका क्षय होजाने पर औषधिका क्या प्रयोजन १ चित्त शून्य होजाने पर शास्त्रोंका क्या प्रयोजन ? हाथ कट जाने पर शस्त्रोंका क्या प्रयोजन ? वैसे ही अपने स्वीकार किये हुए व्रतके खंडित होने पर दिव्य ऐश्वर्य सुखआदिका क्या प्रयोजन ? "
यह विचार कर उसने राक्षसको परम आदरसे तेजदार और सारभूत वचन कहा कि, " हे राक्षसराज ! तूने कहा सो उचित है, परन्तु पूर्वकाल में मैंने गुरुके पास नियम स्वीकार किया है कि, महान् पापोंका स्थान ऐसा राज्यको ग्रहण नहीं करूंगा । यम और नियम इन दोनों की विराधना करी होवे तो ये तीव्र दु:ख देते हैं । जिसमें यम तो आयुष्य के अंत ही में दुःख देता है, परन्तु नियम जन्म से लेकर सदैव दुःखदायी है । इसलिये हे सत्पुरुष ! मेरा नियम भंग न हो ऐसा चाहे जो कष्टसाध्य कार्य कह उसे मैं शीघ्र करूंगा ।" राक्षसनें क्रोध से कहा कि" अरे ! व्यर्थ क्यों गाल बजाता है ? मेरी प्रथम मांग तो व्यर्थ गई और अब दुसरीवार मांग करने को कहता है ! अरे