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दिया। तब उनके मंत्रियोंने कहा कि, "पूर्वकी व्यवस्था इस प्रकार है" : - दक्षिणदिशामें जितने विमान हैं वे सब सौधर्म इन्द्रके हैं, और उत्तरदिशामें जितने हैं उन सब पर ईशानइन्द्रकी सत्ता है । पूर्वदिशा तथा पश्चिमदिशा में सब मिलकर तेरह गोलाकार इन्द्रक विमान हैं, वे सौधर्म इन्द्र के हैं । उन्हीं दोनों दिशाओंमें त्रिकोण और चतुष्कोण जितने विमान हैं, उनमें आधे सौधर्म इन्द्रके और आधे ईशानइन्द्रके हैं । सनत्कुमार तथा माहेद्रदेवलोक में भी यही व्यवस्था है । सब जगह इन्द्रकविविमान तो गोलाकार ही होते हैं ' मंत्रियोंके वचनानुसार इस प्रकार व्यवस्थाकर दोनों इन्द्र चित्तमें स्थिरता रख, वैर छोड परस्पर प्रीति करने लगे। इतनेमें चन्द्रशेखर देवताने हरिणेगमेषी देवताको सहज कौतुक से पूछा कि - " संपूर्ण जगत में लोभके सपाटेमें न आवे ऐसा कोई जीव है ? अथवा इन्द्रादिक भी लोभवश होते हैं तो फिर दूसरेकी बात ही क्या ? जिस लोभने इन्द्रादिकको भी सहज ही में घरके दास समान वशमें कर लिये, उसका तीनों जगतमें वास्तवमें अद्भुत एकछत्र साम्राज्य है । " तब नैगमेषीदेवता ने कहा कि - " हे चन्द्रशेखर ! तू कहता है वह बात सत्य है, तथापि ऐसी कोई भी वस्तु नहीं कि जिसकी पृथ्वी में बिलकुल ही सत्ता न हो । वर्त्तमान ही में श्रेष्ठिवर्य श्री वसुसारका " रत्नसार " नामक पुत्र पृथ्वी पर है, वह किसी भी प्रकार लोभवश होने वाला नहीं । यह बात बि
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