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हे गोत्रदेवियो ! वनदेवियो ! आकाशदेवियो ! तुम शीघ्र आओ और मेरी इस कन्याको दीर्घायु करो । " रानीकी सखियां, दासियां, और नगरकी सती स्त्रियां वहां आकर रानीके दुःखसे स्वयं दुखी होकर उच्चस्वर से अतिशय विलाप करने लगी । उस समय वहां के सर्व मनुष्य शोकातुर थे । “ अशोक " नाम धारण करनेवाले वृक्ष भी चारों ओर से शोक करते हों ऐसे मालूम होने लगे. उन लोगों के दुःख से अतिशय दुःखी हो वहां न रह सकने के कारण मानो सूर्य भी उसी समय पश्चिमसमुद्रमें डूब गया ( अस्त होगया ।) पूर्वदिशा की ओरसे फैलते हुए अधकारको अशोक मंजरीके विरहसे उत्पन्न हुए शोकने मार्ग दिखा दिया जिससे वह तुरन्त ही सुखपूर्वक वहां सर्वत्र प्रसारित होगया । जिससे शोकातुर लोग और भी अकुलाये । मलनिस्तु के कृत्य ऐसे ही होते हैं। थोडी देरके अनन्तर अमृत के समान रश्मिधारी सुखदायी चन्द्रमा त्रैलोक्यको म लीन करनेवाले अंधकार को दूर करता हुआ प्रकट हुआ । जैसे सजल मेघ लताओं को तृप्त करता है, वैसे ही मानो चन्द्रमाने मनमें मानो दया लाकर ही अपनी चंद्रिका ( चांदनी ) रूप अमृतरसकी वृष्टिसे तिलकमंजरीको प्रसन्न की ।
पश्चात् रात्रिके अंतिमप्रहर में जैसे मार्गकी जानने वाली मुसाफिर स्त्री उठती है, वैसे ही मनमें कुछ विचार करके तिलकमंजरी उठी, और निष्कपटमनसे सखियों को साथ लेकर