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होता है. वह दुष्ट एक समय किसी कार्यके निमित्त अपने नगरको गया. उस समय उक्त वेषधारी तापसकुमारने हिंडोले पर क्रीड़ा करते हुए तुझे देखा. वह तुझ पर विश्वास रख कर अपना वृत्तान्त कह रहा था, कि इतने ही में विद्याधरराजाने वहां अाकर पवन जैसे आकके कपासको हरण करता है, उसीप्रकार उसे हरण कर गया, और मणिरत्नोंसे देदीप्यमान अपने दिव्यमंदीरमें ले जाकर क्रोधपूर्वक उसको कहने लगा कि, "अरे देखनेमें भोली ! वास्तवमें चतुर ! और बोलनेमें सयानी! तू कुमार अथवा अन्य किसीके भी साथ तो प्रेमसे वार्तालाप करती है, और तुझपर मोहित मुझको उत्तर तक नहीं देती है । अब भी मेरी बात स्वीकार कर. हठ छोड दे, नहीं तो दुखदायी यमके समान मैं तुझपर रुष्ट हुआ समझ." यह वचन सुन मनमें धैर्य धारण कर अशोकमंजरीने कहा- 'अरे विद्याधरराजा ! छलबलसे क्या लाभ होगा? छली व बली लोग चाहे राज्यऋद्धिआदिको साधन कर सकते हैं, परन्तु प्रेमको कभी भी नहीं साध सकते. उभयव्यक्तियों के चित्त प्रसन्न होवे तभी ही चित्तरूपभूमिमें प्रेमांकुर उत्पन्न होते हैं. घृतके बिना जैसे मोदक , वैसेही स्नेहके बिना स्त्रीपुरुषोंका सम्बन्ध किस कामका ? ऐसा स्नेह रहित संबंध तो जंगलमें परस्पर दो लकडियोंका भी होता है. इसलिये मूर्खके सिवाय अन्य कौन व्यक्ति स्नेहहीन दूसरे मनुष्यकी मनवार