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(५६७) हंसिनीकी तरफ प्रेम व समझावटसे देखता, दो आंखोंसे तिलकमंजरीकी तरफ अभिलाषा व उत्सुकतासे देखता, दो आंखोंसे मयूरपक्षीकी और इच्छा व कौतुकसे देखता, दो आंखोंसे जिनेश्वरभगवानकी प्रतिमा तरफ उल्लास व भक्तिसे देखता, दो आंखोंसे कुमारके तरफ डाह और क्रोधसे देखता तथा दो आंखोंसे कुमारके तेजको भय तथा आश्चर्य से देखता हुआ वह विद्याधरराजा मानो अपनी अपनी बीस भुजाओंकी स्पर्धा ही से अपनी बीस आंखोंसे ऊपरोक्त कथनानुसार पृथक् २ बसि मनोविकार प्रकट करता था. पश्चात् वह यमकी भांति किसीसे वशमें न होवे ऐसा प्रलयकालकी भांति किसीसे सहा न जावे ऐसा और उत्पातकी भांति जगत्को क्षोभ उत्पन्न करनेवाला होकर आकाशमें उछला.
उसके महान् भयंकर और अद्भुत साक्षात् रावणके समान स्वरूपको देखकर तोता डरा. ठीक ही है, ऐसे क्रूरस्वरूपके सन्मुख कौन खडा रह सकता है ? दावाग्निको जलती हुई ज्वालाको पीनेकी कौन मनुष्य इच्छा करता है ? अस्तु, भयभीत तोता श्रीरामके समान रत्नसारकुमारकी शरणमें गया. अनन्तर विद्याधरराजाने इस प्रकार ललकार की- "हे कुमार ! दूर भाग जा, वरना अभी नष्ट हो जावेगा. अरे दुष्ट ! निर्लज्ज ! अमर्याद ! निरंकुश ! तू मेरे जीवनकी सर्वस्व हंसिनीको गोदमें लेकर बैठा है ? अरे ! तुझे बिलकुल किसीका भय या शंका