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(५९१) है। जिस प्रकार श्रेष्ठनीति कीर्ति और लक्ष्मीरूप जोडेको प्रसव करती है उसी भांति यथासमय कुसुमसुन्दरीने एकही समय पा कन्याएं प्रसव की. राजाने एकका अशोकमंजरी व दूसरीका तिलकमंजरी नाम रखा. वे दोनों कन्याएं पांच धायमाताओंसे प्रतिपालित होती हुई मेरुपर्वतस्थित कल्पलताओंकी भांति बढने लगी. कुछ ही कालमें वे दोनों समस्तकलाओंमें कुशल हो गई । एक तो उन कन्याओंके रूपसौंदर्यमें प्रथम ही कोई कमी नहीं था, तथापि स्वाभाविक सुन्दर वनश्री जैसे वसन्तऋतुके आगमनसे विशेष शोभायमान होती है, वैसे ही वे नवयौवनअवस्थाके आनेसे विशेष शोभने लगी. मानो कामदेवने जगत्को जतिनेके लिये दोनों हाथों में धारण करनेके लिये दो खड्ग ही उज्ज्वल कर रखें हों ऐसी उन कन्याओंकी शोभा दिखती थी. सर्पकी दो जिव्हा समान अथवा क्रूर ग्रहके दो नेत्रों के समान जगत्को क्षोभ ( कामविकार ) उत्पन्न करनेवाली उन दोनों कन्याओंके सन्मुख अपना मन वश रखने में किसीका भी धैर्य स्थिर न रहा, सुखमें, दुखमें, आनन्दमें अथवा विषादमें एक दूसरेसे भिन्न न होनेवाली, सर्वकार्यों में तथा व्यवहारोंमें साथ रहनेवाला तथा शील व सर्वगुणोंसे एक समान उन कन्याओंकी जन्मसे बंधी हुई पारस्परिक प्रीतिको जो कदाचित् उपमा दी जाय तो दो नेत्रों ही की दी जा सकती है. कहा है कि