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दिनाथ भगवान्को मेरा नमस्कार है. " उल्लास से जिसके शरीर पर फणस फलके कंटक समान रोमराजि विकसित हुई है ऐसे रत्नसारकुमारने ऊपर लिखे अनुसार जिनेश्वर भगवानकी स्तुति कर, तवार्थी प्राप्ति होने से ऐसा माना कि, "मुझे प्रवासका पूर्ण फल आज मिल गया.
"
पश्चात् उसने तृषा से पीडित मनुष्यकी भांति मंदिर के समीपकी शोभारूप अमृतका बारम्बार पान करके तृप्तिसुख प्राप्त किया. तदनन्तर अत्यन्त सुशोभित मंदिरके मत्तवारण-- गवाक्ष ऊपर बैठा हुआ रत्नसार, मदोन्मत्तऐरावतहस्ती पर बैठे हुए इन्द्रकी भांति शोभने लगा व उसने तोते को कहा कि, " उक्त तापसकुमारका हर्ष उत्पन्न करनेवाला शोध अभी तक क्यों नहीं लगता ? " तोता बोला- " हे मित्र ! विषाद न कर. हर्ष धारण कर. शुभशकुन दृष्टि आते हैं जिससे निश्चय आज तापसकुमारकी प्राप्ति होगी. " इतनेही में दिव्य वस्त्रोंसे सुसज्जित सर्वदिशाओं को प्रकाशित करती हुई एक सुन्दर स्त्री सन्मुख आई. वह मस्तक पर रत्नसमान शिखाधारी, परम मनोहर, सुन्दरपंखों से सुशोभित, मधुर केकीरवयुक्त, अपनी अलौकिकछबिसे अन्य सर्वमयूरोंको हरानेवाले तथा इन्द्र के अश्वसे भी तत्रिगति एक दिव्यमयूर पर आरूढ थी. उसके शरीरकी कान्ति दिव्य थी. स्त्रीधर्मकी आराधना करनेमें निपुण वह स्त्री प्रज्ञप्तिदेवीके समान दीखती थी. कमलिनीकी भांति उसके सर्वागसे कमल