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भवमें जितना देवद्रव्य व्यवहारमें लिया हो, उससे सहस्रगुणा द्रव्य देवद्रव्य खातेमें न दे दूं, तब तक अन्न वस्रके खर्चके अतिरिक्त द्रव्यका संग्रह न करूंगा और इस नियमके साथही साथ उसने शुद्ध श्रावक धर्म भी ग्रहण किया. उस दिनसे उसने जो जो कार्य किया, उन सभीमें उसे उत्तरोत्तर द्रव्य लाभ होता गया व ज्यों ज्यों लाभ होता गया त्यों त्यों वह सिर पर चढे देवद्रव्यको उतारता गया. तथा थोडे ही दिनोंमें उसने पूर्वभवमें वापरी हुई एक सहस्र कांकिणीके बदलेमें दस लक्ष कांकिणी देवद्रव्य खातेमें जमा कर दी. देवद्रव्यके ऋणसे उऋण होनेके अनन्तर बहुतसा द्रव्य उपार्जन करके वह अपने नगरको आया. सर्व बडे २ श्रेष्ठियों में श्रेष्ठ होनेसे राजाने भी उसका मान किया. अब वह अपने बनवाये हुए तथा अन्य भी सर्व जिनमंदिरोंकी सार सम्हाल अपनी सर्वशक्तिसे करने लगा, नित्य महान् पूजा तथा प्रभावना कराता व देवद्रव्यका भली भांति रक्षण करके युक्तिपूर्वक उसकी वृद्धि करता. ऐसे सत्काँसे चिरकाल पुण्योपार्जन कर अन्तमें उसने जिननामकर्म बांधा. तत्पश्चात् अवसर पाकर दीक्षा ले गीतार्थ हो, यथायोग्य बहुतसा धर्मोपदेशआदि करनेसे जिन-भक्तिरूप प्रथम स्थानककी आराधना करी. और उससे पूर्वसीचत जिननामकर्म निकाचित किया. तदुपरान्त सर्वार्थसिद्धि महाविमानमें देवत्व तथा अनुक्रमसे महाविदेहक्षेत्रमें अरिहंतकी ऋद्धिका उपभोग कर वह सिद्ध होगया ।