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श्रेष्ठपुरुषने किसीका ऋण एक क्षणमात्र भी कदापि न रखना चाहिये, तो भला अतिदुःसह देवादिकका ऋण कौन सिर पर रक्खे? अतएव बुद्धिमान पुरुषने धर्मका स्वरूप समझकर सब जगह स्पष्ट व्यवहार रखना चाहिये । कहा है कि- जैसे गाय नवीन चन्द्रको, न्यौला न्यौलीको, हंस पानीमें रहे हुए दूधको और पक्षी चित्रावेलको जानता है, वैसे ही बुद्धिमान पुरुष सूक्ष्मधर्मको जानता है... इत्यादि । इस विषयका अधिक विस्तार न कर अब गाथाके उत्तरार्द्धकी व्याख्या करते हैं.
इस प्रकार जिनपूजा करके ज्ञानादि पांच आचारको दृढतापूर्वक पालनेवाले गुरुके पास जा स्वयं पूर्व किया हुआ पच्चखान अथवा उसमें कुछ वृद्धि करके बोलना. ( ज्ञानादि पांच आचारकी व्याख्या हमारे रचे हुए आचारप्रदीपग्रंथमें देखो.)
पच्चखान तीन प्रकारका है. एक आत्मसाक्षिक, दूसरा देवसाक्षिक और तीसरा गुरुसाक्षिक. उसकी विधि इस प्रकार
जिनमंदिर में देववन्दनके निमित्त, आये हुए या स्नात्रमहो. त्सवके दर्शनके निमित्त अथवा उपदेशआदि कारणसे वहां ठेरे हुए सद्गुरुके पास वन्दनाआदि करके विधिपूर्वक पच्चखान लेना. मंदिरमें न हों तो उपाश्रयमें जिनमंदिरकी भांति तीन निसिही तथा पांच अभिगमआदि यथायोग्य विधिसे प्रवेश कर उपदेशके पहिले अथवा होनेके अनन्तर सद्गुरुको पच्चीस आव