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विरति पाये हुए हैं, ऐसे धन्य महामुनिजन शुद्ध आहार ग्रहण करते हैं । न देखा हुआ तथा न परखा हुआ किराना ग्रहण न करना. तथा जिसमें लाभ हानिकी शंका हो, अथवा जिसमें अन्य बहुतसी वस्तुएं मिली हुई हों ऐसा किराना बहुतसे व्यापारियों के हिस्से से लेना, ताकि कभी हानि होवे तो सबको समानभागसे होवे. कहा है कि व्यापारी पुरुष व्यापार में धन प्राप्त करना चाहता हो तो उसने किराने देखे बिना बयाना ( स्वीकृति के रूपमें कुछ द्रव्य अग्रिम देना ) न देना और यदि देना हो तो अन्य व्यापारियोंके साथ देना.
क्षेत्रसे तो जहां स्वचक्र, परचक्र, रुग्णावस्था और व्यसनआदिका उपद्रव न होवे, तथा धर्मकी सर्व सामग्री हो, उस क्षेत्र में व्यापार करना, अन्यथा बहुत लाभ होता हो तो भी न करना । कालसे तो बारह मासमें आनेवाली तीन अड्डाइयां, पर्वतिथि व्यापार में छोडना, और वर्षादिऋतुके लिये जिन २ व्यापारोका सिद्धान्त में निषेध किया है, वे व्यापार भी त्यागना. किस ऋतुमें कोनसा व्यापार न करना यह इसी ग्रंथ में कहा जावेगा । भावसे तो व्यापारके बहुत भेद हैं, यथा:- क्षत्रियजातिके व्यापारी तथा राजाआदिके साथ थोडा व्यवहार किया हो तो भी प्रायः लाभ नहीं होता । अपने हाथ से दिया हुआ द्रव्य भी मांगते जिन लोगों का डर रहता है, ऐसे शस्त्रधारी आदि लोगों के साथ थोडा व्यवहार करने पर भी लाभ