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(४६१) सोमनातिमें भी कहा है कि--जो मनुष्य परलोकके सुख में बाधा न आवे ऐसी रीतिसे इस लोकका सुख भोगता है, वही सुखी कहा जाता है। वैसे ही अर्थको बाधा उपजाकर धर्म तथा कामका सेवन करनेवालेके सिरपर बहुत देना होजाता है और कामको बाधा उपजाकर धर्म व अर्थका सेवन करनेवालेको सांसारिकसुखका लाभ नहीं होता । इस प्रकार क्षणिक विषयसुखमें आसक्त, मूलभोगी (जडको खा जानेवाला) और कृपण इन तीनों पुरुषों के धर्म, अर्थ तथा कामको बाधा उत्पन्न होती है । - जो मनुष्य कुछभी संग्रह न करते जितना धन मिले उतना विषयसुख ही में खर्च करते हैं वे क्षणिकविषयसुखमें आसक्त कहे जाते हैं. जो मनुष्य अपने बापदादाओंका उपार्जित द्रव्य अन्यायसे खाते हैं,वे बीज(मूल)भोजी कहे जाते हैं,और जो मनुष्य अपने जीव, कुटुम्ब सेवकवर्गको दुःख देकर द्रव्यसंग्रह करते हैं और योग्यरीतिसे जितना खर्चना चाहिये उतना भी न खर्च वे कृपण कहलाते हैं. जिसमे क्षणिक विषयसुखमे आसक्त और मूलभोजी इस दोनोंका द्रव्य नष्ट हो जाता है, इस कारण उनसे धर्म और कामका सेवन नहीं होता. इसलिए इन दोनों जनोंका कल्याण नहीं होता. कृपणका किया हुआ द्रव्यका संग्रह दूसरेका कहलाता है । राजा, भूमि, चोरआदि लोग कृपणके धनके मालिक होते हैं, इससे उसका धन धर्म अथवा कामके उपयोगमें नहीं आता. कहा है कि--