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और उसके बदलेमें आठ द्रम्म उपार्जन किये. पर्वके दिन सब ब्राह्मणोंको निमन्त्रण करके उक्त सुपात्रब्राह्मणको बुलानके लिये मन्त्रीको भेज़ा. उस ब्राह्मणने उत्तर दिया कि, "जो ब्राह्मण लोभसे मोहवश हो राजाके पाससे दान ले, वह तमिश्रादिक घोरनरकमें पडकर दुःखी होता है. राजाका दान मधुमें मिश्रित किये हुए विषके समान है. समय पर पुत्रका मांस भक्षण कर लेना श्रेष्ठ, पर राजाके पाससे दान न लेना चाहिये. कुम्भारके पाससे दान लेना दश हिंसाके समान, ध्वज (कलार)के पाससे लेना सौ हिंसाके समान, वश्याके पाससे लेना एक हजार हिंसाके समान और राजाके पाससे लेना दश हजार हिंसाके समान है। स्मृति, पुराणआदिके वचनोंमें राजाके पाससे दान लेने में ऐसे दोष कहे हैं, इसलिये मैं राजदान नहीं लेता. तब मन्त्रीने कहा-" राजा अपने बाहुबलसे न्यायपूर्वक उपार्जन किया हुआ द्रव्यही तुमको देगा, उसे लेनेमें कोई दोष नहीं है." इत्यादि नानाप्रकारसे समझाकर मन्त्री उस सुपात्रब्राह्मणको राजाके पास ले गया. राजाने हार्षत हो उस ब्राह्मणको बैठने के लिये अपना आसन दिया,पग धोकर विनयपूर्वक उसकी पूजा की और पूर्वोक्त न्यायोपार्जित आठ द्रम्म उसे दाक्षिणाके तौर पर गुप्तरीतिसे उसकी मुहीमें दिये. दूसरे ब्राह्मणों को यह देखकर कुछ रोष आया. उनके मनमें यह भ्रम हुआ कि " राजाने इसे गुप्तरीतिसे कुछ श्रेष्ठ वस्तु दे दी है."