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(४६१) मनुष्य उसकी उपेक्षा करते हैं तथा उसके मातापिता भी उसे अधिक नहीं मानते.
परपरिभवपरिवादादात्मोत्कर्षच्च बध्यते कर्म । नीचैर्गोत्रं प्रतिभवमनेकभव कोटिदुर्मोचम् ॥
दुसरेका पराभव अथवा निंदा करनेसे अथवा अपना बडप्पन आप प्रकट करनेसे भवभवमें नीचकर्म बंधता है. ये कर्म करोडों भव तक भी छूटना कठिन हैं. परनिंदा महान पाप है, कारण, बडे खेदकी बात है कि, निंदा करनेसे दूसरेके किएहुए भी पाप विना किये ही निंदा करनेवालेको गडमें डालते हैं. यहां एक निंदक वृद्धा स्त्रीका दृष्टान्त कहते हैं कि:
सुग्राम नामक नगरमें सुन्दर नामक एक श्रेष्ठी था. वह वडा धर्मी और मुसाफिरआदि लोकोंको भोजन, वस्त्र, निवासस्थान आदि देकर उन पर भारी उपकार किया करता था. उसके पडौसमें एक वृद्ध ब्राह्मणी रहती थी, वह श्रेष्ठीकी नित्य निंदा किया करती, और कहती कि, “ मुसाफिर लोग विदेशमें मर जाते हैं, उनकी धरोहरआदि मिलनेके लोभसे यह ( श्रेष्ठी ) अपनी सच्चाई बताता है आदि." एक समय क्षुधातृषासे पीडित एक कार्पटिक (भिक्षुक)आया. अपने घरमें न होनेके कारण उसने ( श्रेष्ठीने ) ग्वालिनके पाससे छाछ मंगाकर उसे पिलाई, जिससे वह मर गया. कारण कि, ग्वालिनके सिर पर रखे हुए छाछ के बरतनमें ऊपर उडती हुई सेमलीके मुखमें