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(५२३) याममध्ये न भोक्तव्यं, यामयुग्मं न लङ्घयेत् । याममध्ये रसवृद्धि, यामयुग्मं बलक्षयः ॥ १ ॥
प्रहर दिन आनेके पहिले भोजन नहीं करना तथा भोजनके बिना मध्यान्हका उल्लंघन न होने देना । कारण कि, प्रथमप्रहरमें पहिले दिन खाये हुए अन्नका रस बनता है, इसलिये नवीन भोजन नहीं करना, और विना भोजन किये मध्यान्हका उल्लंघन करनेसे बल क्षय होता है, अतएव दूसरे प्रहरमें अवश्य भोजन करना चाहिये । सुपात्रको दान आदि करनेकी युक्ति इस प्रकार है:
श्रावकने भोजनके अवसर पर परमभक्तिसे मुनिराजको निमंत्रणा करके अपने घर लाना अथवा श्रावकने स्वेच्छासे आते हुए मुनिराजको देख उनका स्वागतादिक करना. पश्चात् क्षेत्र संवेगीका भावित है कि, अभावित है ? काल सुभिक्षका है कि दुर्भिक्षका है ? देनेकी वस्तु सुलभ है कि दुर्लभ है तथा पात्र (मुनिराज ) आचार्य है, अथवा उपाध्याय, गीतार्थ, तपस्वी, बाल, वृद्ध, रोगी, समर्थ किंवा असमर्थ है इत्यादिका मनमें विचार करना. और स्पर्धा, बडप्पन, डाह, प्रीति,लज्जा, दाक्षिण्य, 'अन्यलोग दान देते हैं अतः मुझे भी उसके अनुसार करना चाहिये' ऐसी इच्छा, अत्युपकारकी इच्छा, कपट, विलंब, अनादर, कटुभाषण, पश्चाताप आदि दानके दोष उत्पन्न न होने देना. तदनन्तर केवल अपने जीव पर अनुग्रह करनेकी बुद्धिसे