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चिरसंचित प्रीति भी टूट जाती है. उनके शत्रुओंके साथ मित्रता न करे व उनके मित्रोंसे मित्रता करे. ( २६)
तयभावे तग्गेहं, न वइज्ज चइज्ज अस्थसम्बन्धं ।
गुरुदेवधम्मकज्जेसु एकचित्तेहिं होअव्वं ॥२७॥ - अर्थः- पुरुषने स्वजन घरमें न होय, और उसके कुटुम्बकी केवल स्त्रियां ही घरमें होवें, तो उसके घरमें प्रवेश न करना, स्वजनोंके साथ द्रव्यका व्यवहार न करना, तथा देवका, गुरुका अथवा धर्मका कार्य होवे तो उनके साथ एकचित्त होना. स्वजनोंके साथ द्रव्यका व्यवहार न करनेका कारण यह है कि, उनके साथ व्यवहार करते समय तो जरा ऐसा ज्ञात होता है कि प्रीति बढती है; परन्तु परिणाममें उससे प्रीतिके बदले शत्रुता बढती है. कहा है कि-- __यदीच्छेद्विपुलां प्रीतिं, त्रीणि तत्र न कारयेत् ।
वाग्वादमर्थसम्बन्धं, परोक्षे दारदर्शनम् ( भाषणम् ) ॥१॥ जहां विशेष प्रीति रखनेकी इच्छा होवे वहां तीन बातें न करना. एक वादविवाद, दूसरी द्रव्यका व्यवहार और तीसरी उनकी अनुपस्थितिमें उनकी स्त्रीसे भाषण, धर्मादिक कार्यमें एकचित्त होनेका कारण यह है कि, संसारीकाममें भी स्वजनोंकी साथ ऐक्यता रखनेहीसे उत्तम परिणाम होता है. तो फिर जिनमंदिरआदि देवादिकके कार्यमें तो अवश्यही ऐक्यता चाहिये । क्योंकि, ऐसे कार्य तो सर्वसंघके आधार पर हैं. और सर्वसंघकी