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के साथ लेन देनका व्यवहार न करना. तो फिर राजा के साथ तो कदापि व्यवहार न करना इसमें तो कहना ही क्या है ? राजाके अधिकारीआदिके साथ व्यवहार न करनेका कारण यह है कि, वे लोग धन लेते समय तो प्रायः प्रसन्नमुखसे वार्तालाप कर तथा उनके यहां जाने पर बैठनेको आसन, पान सुपारी आदि देकर झूठा बाह्य आडम्बर बताते हैं, तथा भलाई प्रकट करते हैं, परन्तु समय आने पर खरा लेना मांगें तो
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हमने तुम्हारा अमुक काम नहीं किया था क्या ? " ऐसा कह अपना किया हुआ तिलके फोतरेके समान यत्किंचित् मात्र उपकार प्रकट करते हैं, और पूर्वके दाक्षिण्यको उसी समय छोड देते हैं. ऐसा उनका स्वभाव ही है. कहा है कि
द्विजन्मनः क्षमा मातुर्देषः प्रेम पणस्त्रियाः । नियोगिनश्च दाक्षिण्यमरिष्टानां चतुष्टयम् ॥ १ ॥
१ ब्राह्मण में क्षमा, २ मातामें द्वेष, ३ गणिकामें प्रेम और ४ अधिकारियों में दाक्षिण्यता ये चारों अरिष्ठ हैं. इतना ही नहीं, बल्कि उलटे देनेवालेको झूठे अपराध लगाकर राजासे दंड कराते हैं. कहा है कि
उत्पाद्य कृत्रिमान् दोषान्, धनी सर्वत्र बाध्यते । निर्धनः कृतदोषोऽपि, सर्वत्र निरुपद्रवः ॥ १ ॥ लोग धनवान् मनुष्य पर झूठे दोष लगाकर उस पर उपद्रव करते हैं, परन्तु निर्धन मनुष्य अपराधी भी होवे तो भी उसे