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कृपणता करनेसे दुर्गति पावे, ७९ जिसके दोष स्पष्ट दीखते हैं उसकी प्रशंसा करे, ८० सभाका कार्य पूर्ण न होते मध्य में उठ जावे, ८१ दूत होकर संदेशा भूल जावे, ८२ खांसीका रोग होते हुए चोरी करने जावे, ८३ यशकी इच्छा से भोजनका खर्च विशेष रखे, ८४ लोक प्रशंसाकी आशा से अल्प आहार करे, ८५ जो वस्तु थोडी होवे, वह अधिक खानेकी इच्छा रखे, ८६ कपटी व मधुरभाषी लोगोंके पाशमें फंस जावे, ८७ वेश्या प्रेमी के साथ कलह करे, ८८ दो जनें कुछ सलाह करते
वहां जावे, ८९ अपने ऊपर राजाकी सदा ही कृपा बनी रहेगी ऐसा विश्वास रखे, ९० अन्याय से सुदशामें आनेकी इच्छा करे, ९१ निर्धन होते हुए, धनसे होनेवाले काम करने जावे, ९२ गुप्तवात लोकमें प्रकट करे ९३ यशके निमित्त अपरिचित व्यक्तिकी जमानत दे, ९४ हितवचन कहनेवालेके साथ वैर करे, ९५ सब जगह विश्वास रखे, ९६ लोकव्यवहार न जाने, ९७ याचक होकर गरम भोजन करने की आदत रखे, ९८ मुनिराज होकर क्रिया पालने में शिथिलता रखे, ९९ कुकर्म करते शरमावे नहीं, १०० भाषण करते अधिक हंसे उसे मूर्ख जानो । इस प्रकार शत मूर्ख हैं ।
इसी प्रकार जिस कार्य से अपना अपयश होवे वह सब त्याग देना चाहिये । विवेकविलासआदि ग्रंथ में कहा है कि- विवेकी पुरुषने सभामें बगासी ( जंभाई), हिचकी,