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करना है. ज्ञानी मातापिताओं की योग्य सेवा करनेसे वे प्रत्येक कार्यके रहस्य (गुप्त भेद) अवश्य प्रकट करते हैं. कहा है कितत्तदुत्प्रेक्षमाणानां पुराणैरागमैर्विना ।
अनुपासितवृद्धानां प्रज्ञा नातिप्रसीदति ॥ १ ॥
यदेकः स्थविरो वेत्ति न तत्तरुणकोटयः |
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यो नृपं लत्तया हन्ति, वृद्धवाक्यात्ल पूज्यते ॥ २ ॥ ज्ञानवृद्ध लोगों की सेवा न करनेवाले और पुराण तथा आगम बिना अपनी बुद्धिसे पृथक् २ कल्पना करनेवाले लोगोंकी बुद्धि विशेष प्रसन्न नहीं होती. एक स्थविर (वृद्ध) जितना ज्ञान रखता है उतना करोडों तरुणलोग भी नहीं रख सकते. देखो, राजाको लात मारनेवाला पुरुष वृद्धके वचनसे पूजा जाता है. वृद्धपुरुषोंका वचन सुनना तथा समय पडने पर बहुतों से पूछना देखो, वनमे हंसोंका समूह बन्धनमें पडा था वह वृद्धवचन ही से मुक्त हुआ. इसी प्रकार अपने मनका अभिप्रायः पिताजीके सन्मुख अवश्य प्रकट कर देना चाहिये. (४)
आपुच्छिउं पयट्टइ, करणिज्जेसु निसेहिओ ठाइ || खलिए खरंपि भणिओ, विणीअयं न हु विरंघेइ ||५|| अर्थः- पिताजीको पूछ कर ही प्रत्येककार्यम लगना, यदि पिताजी कोई कार्य करनेकी मनाई कर दें तो न करना, कोई अपराध होने पर पिताजी कठोर शब्द कहे, तो भी अपना विनी - तपन न छोड़े, अर्थात् मर्यादा छोड़कर चाहे जैसा प्रत्युत्तर न दें.