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(४७७) प्रीतिवचनके सिवाय अन्य वशीकरण नहीं, कलाकौशलके समान अन्य धन नहीं, हिंसा के समान अन्य अधर्म नहीं और सन्तोषके समान अन्य सुख नहीं है. (१३) ।
सुस्सूसाइ पयट्टइ, वत्याभरणाइ समुचि देइ ॥ नाडयपिच्छणयाइसु, जणसंमद्देसु वारेइ ॥ १४ ॥
अर्थः-पुरुष अपनी स्त्रीको स्नान कराना, पग दाबना. आदि अपनी कायसेवामें प्रवृत्त करे. देश, काल, अपने कुटुम्ब धन आदिका विचार करके उचित वस्त्र, आभूषणआदि उसको दे, तथा जहां नाटक. नृत्य आदि होते हैं ऐसे बहुतसे लोगोंके मेले में जानेको उसे मना करे। अपनी कायसेवामें स्त्रीको लगानेका कारण यह है कि, उससे पतिके ऊपर उसका पूर्ण विश्वास रहता है, उसके मन में स्वाभाविक प्रेम उत्पन्न होता है, जिससे वह कभी भी पतिकी इच्छाके प्रतिकूल कार्य नहीं करती. आभूषणादि देनेका कारण यह है कि, स्त्रियोंके आभूषणादिसे सुशोभित रहनेसे गृहस्थकी लक्ष्मी बढती है, कहा है कि--
श्रीमङ्गलात्प्रभवति, प्रागल्भ्याच्च प्रवर्द्धते । दाक्ष्यात्तु कुरुते मूलं, संयमात्प्रतितिष्ठति ॥ १॥
लक्ष्मी मांगलिक करनेसे उत्पन्न होती है. धीरजसे बढती है, दक्षतासे दृढ होकर रहती है और इन्द्रियोंको वशमे रखनेसे स्थिर रहती है. नाटकआदि मेलोंमें स्त्रियोंको न जाने देनेका कारण यह है कि, वहां हलके लोगोंकी कुचेष्टाएं मर्यादा रहित