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काकूयाक शरीरसे बहुत दुबला था, इस कारण वे लोग इसे " रंकश्रेष्ठी" कहने लगे । एकसमय कोई कार्पटिक, शास्त्रोक्तकल्पके अनुसार गिरनारपर्वतके ऊपर सिद्ध किया हुआ कल्याणरस एक तुंबडीमें भरकर लिये आरहा था । इतनेमें बलभीपुरके समीप आते कल्याणरसमेंसे "काकू तुंबडी" ऐसा शब्द निकला, जिससे भयातुर हो उस कार्पटिकने वह तुंबडी काकूयाकके यहां धरोहर रख दी और आप सोमनाथकी यात्राको चला गया। _ एक वक्त किसी पर्वके अवसरपर काकूयाकके घरमें कुछ विशेष वस्तु तैयार करनेके लिये चूल्हे पर कढाई रखी । उस कढाई पर उक्त तुंबडीके छेद मेंसे एक बूंद गिर गया, अग्निका संयोग होते ही उस कढाईको स्वर्णमय हुई देखकर काकू. याकको निश्चय होगया कि-" इस तुंबडीमें कल्याणरस है। " तदनन्तर उसने घरमेंकी सब अच्छी २ वस्तुएं तथा वह तुंबडी बाहर निकालकर झोंपडीमें आग लगादी तथा दूसरे मोहल्लेमें घर बंधाकर रहने लगा । एक दिन एक स्त्री घी बेचने आई । उसका घी तोल लेनेपर काकूयाकको ऐसा दृष्टि आया कि 'चाहे कितना ही घी निकाल लिया जाय परन्तु घीका पात्र खाली नहीं होता है।' इस परसे उसने निश्चय किया कि, " इस पात्रके नीचे जो कुंडलिका (चुमली ) है, वह कालीचित्रकवल्लीकी है।” व किसी बहाने उसने वह कुंडालिका ले ली ।