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हुआ धन भी शुद्ध होता है, धन शुद्ध होनेसे आहार शुद्ध होता है, आहार शुद्ध होनेसे देह शुद्ध होती है और देह शुद्ध होनेसे मनुष्य धर्मकृत्य करनेको उचित होता है. तथा वह मनुष्य जो कुछ कर्म करता है वे सब सफल होते हैं. परन्तु व्यवहार शुद्ध न होनेसें मनुष्य जो कुछ कर्म कर वह सर्व निष्फल है। कारण कि व्यवहार शुद्ध न रखनेवाला मनुष्य धर्मकी निन्दा कराता है और धमकी निन्दा करानेवाला मनुष्य अपने आपको तथा दूसरेको अतिशय दुर्लभबोधि करता है, ऐसा सूत्रमें कहा है. अतएव मनुष्यने यथाशक्ति प्रयत्न करके ऐसे कृत्य करना चाहिये, कि जिससे मूर्खलोग धर्मकी निन्दा न करें, लोकमें भी आहारके अनुसार शरीरप्रकृतिका बंधन स्पष्ट दृष्टि आता है. जैसे अपनी बाल्यावस्थामें भैंसका दूध पीनेवाले घोडे सुखसे जलमें पड़े रहते हैं, और गायका दूध पीनेवाले घोडे जलसे दूर रहते हैं, वैसेही मनुष्य बाल्यादिअवस्थामें जैसे आहारका भोग करता है, वैसीही प्रकृतिका होता है. इसलिये व्यवहार शुद्ध रखनेक निमित्त भली भांति प्रयत्न करना चाहिये ।
देशविरुद्ध--इसी प्रकार देशादिविरुद्ध बातका त्याग करना चाहिये. याने जो बात देशविरुद्ध (देश की रूढिके प्रतिकूल ) कालविरुद्ध किंवा राजादिविरुद्ध हो उसे छोडना. हितोपदेशमालामें कहा है कि, जो मनुष्य देश, काल, राजा,