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पश्चात् राजाने स्वर्णआदि देकर अन्यब्राह्मणोंको सन्तुष्ट किया. अन्य सब ब्राह्मणोंका राजाने दिया हुआ द्रव्य किसीका छः मासमें, तो किसीका इससे कम अधिक अवधिमें खर्च हो गया. परन्तु सुपात्रब्राह्मणको दिये हुए आठ द्रम्म अन्नवस्त्रादिके कार्यमें खर्च करने पर भी न्यायोपार्जित होनेके कारण कम न हुए, बल्कि अक्षयनिधिकी भांति तथा खेतमें बोये हुए श्रेष्ठ. बीजकी भांति बहुत काल तक लक्ष्मीकी वृद्धिही करनेवाला होता रहा इत्यादि.
१ न्यायोपार्जित धन और सुपात्रदान इन दोनोंके योगसे चौभंगी ( चार भंगे ) होते हैं. जिसमें १ न्यायोपार्जितधन और सुपात्रदान इन दोनोंके योगसे प्रथम भंग होता है, यह पुण्यानुबंधिपुण्य का कारण होनेसे इससे उत्कृष्ट देवतापन, तथा समाकितआदिका लाभ होता है, और ऐसे अपूर्वलाभसे अन्तमें थोडे काल ही में मोक्ष भी प्राप्त होजाता है. इस पर धनसार्थवाह तथा शालिभद्रआदिका दृष्टान्त जानो. __ २ न्यायोपार्जित द्रव्य और कुपात्रदान इन दोनोंका योग होनेसे दूसरा भंग होता है । यह पापानुबधिपुण्यका कारण होनेसे इससे किसी २ भवमें विषयसुखका पूर्ण लाभ होता है, तो भी अन्तमें उसका परिणाम कडवा ही उत्पन्न होता है. जैसे किः-- .. एक ब्राह्मणने लाख ब्राह्मणोंको भोजन दिया जिससे वह कुछ भवोंमें विषयसुख भोग मरकर अत्यन्त सुन्दर व सुलक्षण