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दायादाः स्पृहयन्ति तस्करगणा मुष्णन्ति भूमीभुजो, गृह्णति च्छलमाकलय्य हुतभुग् भस्मीकरोति क्षणात् । अम्भ लावयते क्षितौ विनिहितं यक्षा हरते हठाद्, दुर्वृत्तास्तनया नयंति निधनं विग् बह्वधीनं धनम् ॥ जिस धनको मनुष्य चाहते हैं, उस धनको चोर लूटें, किसी छलभेदसे राजा हरण कर लें क्षणमात्रमें अनिभस्म कर दे, जल डुबा दे, भूमिमें गाडा हो तो यक्ष हरण करे, पुत्र दुराचारी होवें तो बलात्कार से कुमार्गमें उड़ा दें, ऐसे अनेकों अधिकारमें रहे हुए धनको धिक्कार हैं, अपने पुत्रको लाड लडाने वाले पतिको जैसे दुराचारिणी स्त्री हंसती है, वैसे मृत्यु शरीरकी रक्षा करनेवालेको तथा पृथ्वी धनकी रक्षा करनेवालेको हंसती है । कीडियोंका एकत्रित किया हुआ धान्य, मधुमक्खियोंका एकत्रित किया हुआ मधु और कृपणका उपार्जन किया हुआ धन ये तीनों वस्तुएं दूसरोंहीके उपभोग में आती हैं. इसलिये धर्म अर्थ और कामको बाधा उत्पन्न करना यह बात गृहस्थको उचित नहीं. कदाचित पूर्वकर्मके योग से ऐसा हो तो भी उत्तरोत्तर बाधा होने पर भी शेषका रक्षण करना चाहिये । यथा: --
कामको बाधा होवे तो भी धर्म और अर्थकी रक्षा करना. कारण कि धर्म और अर्थकी भलीभांति रक्षा करनेही से काम ( विषयसुख ) सुख से मिल सकता है. वैसेही अर्थ और काम