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इन दोनोंको बाधा होवे तथापि सर्वप्रकार से धर्म की रक्षा करना चाहिये. कारण कि अर्थ व कामका मूल धर्म है. कहा है किचाहे नरटी में भिक्षा मांगकर अपनी आजीविका चलाता हो, तो भी मनुष्य जो अपने धर्मको बाधा न उपजावे तो उसे ऐसा समझना चाहिये कि, " मैं बडा धनवान हूं. कारण कि, धर्मही सत्पुरुषों का धन है. जो मनुष्य मनुष्यभत्र पाकर धर्म, अर्थ, काम इन तीनका साधन न करे उसकी आयुष्य पशुकी आयुष्यकी भांति वृथा है. इन तीनों में भी धर्म श्रेष्ठ है. कारण कि, उसके बिना अर्थ और काम उत्पन्न नहीं होते. द्रव्यकी प्राप्तिके प्रमाण में उचित व्यय करना चाहिये. नीतिशास्त्र में कहा है कि, जितनी द्रव्यकी प्राप्ति हो, उसका एक चतुर्थभाग संचय करना, दुसरा चतुर्थभाग व्यापार में अथवा व्याज पर लगाना, तीसरा चतुर्थभाग धर्मकृत्य में तथा अपने उपभोग में लगाना; और चौथा चतुर्थभाग कुटुम्बके पोषण निमित्त व्यय करना. कोई २ ऐसा कहते हैं कि प्राप्तिका आधा अथवा उससे भी अधिक भाग धर्मकृत्य में लगाना और बाकी रहे हुए द्रव्य में शेष सर्व कार्य करना. कारण कि, एक धर्मके सिवाय इसलोकके शेष सर्वकार्य तुच्छ हैं. कोई कोई लोग कहते हैं कि- उपरोक्त दोनों वचनों में प्रथम गरीबके तथा दुसरा धनवानके उद्देश्य से कहा है. जीवन और लक्ष्मी किसको वल्लभ नहीं ? किन्तु अवसर पर सत्पुरुष इन दोनोंको तृणसे भी हलका समझते हैं.