________________
करते जो द्रव्य पीछा न आवे, तो मनमें यह समझना कि उतना द्रव्य मैंने धर्मार्थ व्यय किया है. दिया हुआ द्रव्य उगाई करते भी वापस न मिले तो उसे धर्मार्थ माननेका मार्ग रहता है, इसी हेतु ही से विवेकी पुरुषोंने साधर्मीभाइयों के साथ ही मुख्यतः व्यवहार करना, यह योग्य है. म्लेच्छ आदि अनार्यलोगोंसे लेना हो और वह जो वापस न आवे तो वह द्रव्य धमाध है यह समझनेका कोई मार्ग नहीं, अतः उसका केवल त्याग करना अथवा उस परसे अपनी ममता छोड देना. यदि त्याग करनेके अनन्तर देनदार कभी वह द्रव्य दे तो, उसे धर्मार्थ कार्य में लेनेके लिये श्रीसंघको दे देना. वैसे ही द्रव्य, शस्त्रआदि आयुध अथवा अन्य भी कोई वस्तु गुम हो जावे, व मिलना सम्भव न हो, तो उसका भी त्याग करना चाहिये अर्थात् उसे वोसिराना चाहिये. ताकि जो चोर आदि उस वस्तुका उपयोग पापकममें करे तो अपन उस पापकर्मके भागी नहीं होते इतना लाभ है । विवेकी पुरुषोंने पापका अनुबन्ध करनेवाली, अनन्तभव सम्बन्धी शरीर, गृह, कुटुम्ब, द्रव्य, शस्त्रआदि वस्तुओका इसी रीतिसे त्याग करना, अन्यथा अनन्तों भव तक उन वस्तुओंके सम्बन्धसे होने वाले बुरे फल भोगना पडते हैं।
यह हमारा वचन सिद्धान्त विरुद्ध नहीं है. श्री भगवती सूत्रके पांचवे शतकके छटे लद्देशमें " पारधीने हरिणको मारा,