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(४०८) अथवा ऐसा ही योग्य कारण हो तो न्याय करना. इसी प्रकार किसी जीवके साथ मत्सरता न करना. लक्ष्मीकी प्राप्ति कर्माधीन है, इसलिये व्यर्थ मत्सर करनेमें क्या लाभ है ? उससे दोनों भवमें दुःख मात्र होता है. हमने कहा है कि-जैसा दूसरेके लिये सोचे, वैसा स्वयं पाता है, ऐसा जानते हुए कौन व्यक्ति दूसरेकी लक्ष्मीकी वृद्धि देखकर मत्सर करता है ? वैसे ही धान्यकी बिक्रीमें लाभके हेतु दुर्भिक्ष, औषधिमें लाभ होने के हेतु रोगवृद्धिकी तथा वस्त्रमें लाभ होनेके निमित्त अग्निआदिसे वृक्षके क्षयकी इच्छा न करना. कारण कि, जिससे मनुष्य संकटमें आ पडें ऐसी इच्छा करनेसे कर्मबंधन होता है. दुर्दैवके योगसे कदाचित् दुर्भिक्षादि आवे तो भी विवेकीपुरुषने कदापि अनुमोदना न करना. कारण कि उससे वृथा अपना मन मलीन होता है. यथाः
दो मित्र थे. उनमें एक घीकी व दूसरा चमडेकी खरीदीको जा रहे थे. मार्गमें एक वृद्धास्त्रीके यहां भोजन करनेको ठहरे. वृद्धस्त्रीने उनका भाव समझ घृतके खरीददारको घरके अन्दर और दूसरेको बाहिर बिठाकर भोजन कराया. दोनों जने खरीद करके पुनः उसीवृद्धा स्त्रीके यहां आये. तब उस स्त्रीने चमडेके खरीददारको अन्दर और दूसरेको बाहर बैठाकर जिमाया. पश्चात् उन दोनोंके पूछने पर उक्त वृद्धाने कहा कि, जिसका मन शुद्ध था उसे अन्दर बैठाया, और जिसका मन