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(४२६) अविश्वास धनका और विश्वास अनर्थका कारण है । कहा है कि-विश्वासी तथा अविश्वासी दोनों मनुष्यों के ऊपर विश्वास न रखना चाहिये. कारण कि, विश्वाससे उत्पन्न हुआ भय समूल नाश करता है. ऐसा कौन मित्र है कि, जो गुप्त धरोहर रखी हो तो उसका लोभ न करे ? कहा है कि-श्रेष्ठी अपने घरमें किसीकी धरोहर ( अमानत ) आकर पडे, तब वह अपने देवताकी स्तुति करके कहता है कि, “ जो इस थापण ( धरोहर )का स्वामी शीघ्र मर जावे तो तुझे अमुक वस्तु चढाऊंगा." वास्तवमें अर्थ अनर्थका मूल है, परन्तु जैसे अग्नि बिना, वैसे ही धन बिना गृहस्थका निर्वाह नहीं हो सकता. अतएव विवेकीपुरुषने धनका अग्निकी भांति रक्षण करना चाहिये. यथा:--
धनेश्वर नामक एक श्रेष्ठी था, उसने अपने घरमेंकी सर्व सार वस्तुएं एकत्र कर उनका नकद द्रव्य करके एक २ करोड स्वर्णमुद्राके मूल्यके आठ रत्न मोल लिये और गुपचुप अपने एक मित्रके यहां धरोहर रख दिये और आप धन सम्पादन करनेके लिये विदेश चला गया. बहुत समय वहां रहनेके अनन्तर अकस्मात् बीमार होजानेसे उसकी मृत्यु होगई. कहा है कि--पुरुष मचकुन्दफूल सदृश शुद्धमनमें कुछ सोचता है, और दैवयोगसे कुछ और ही होता है. धनेश्वरश्रेष्ठीका अन्तसमय समीप आया, तब स्वजन सम्बन्धियोंने उसको