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(४०५) तो सर्वथा त्याज्य ही है । श्रीदारिद्य संवादमें कहा है कि( लक्ष्मी कहती है ) हे इन्द्र ! जहां महान् पुरुषोंकी पूजा होती है, न्यायसे धनोपार्जन होता है और लेशमात्र भी धन कलह नहीं, वहां मैं रहती हूं. ( दारिद्य कहता है . ) नित्य जुआ खेलनेवाले, स्वजनके साथ द्वेष करनेवाले. धातुर्वाद (किमिया) करनेवाले, सब समय आलस्यमें बितानेवाले और आयव्ययकी ओर दृष्टि न रखनेवाले लोगोंके पास मैं नित्य रहता हूं. विवेकीपुरुषने अपने लेनेकी उघाई भी कोमलतासे तथा निन्दा न हो उसी प्रकार करनी चाहिये. ऐसा न करनेसे देनदारकी दाक्षिण्यता, लज्जाआदिका लोप होता है और उससे अपने धन, धर्म व प्रतिष्ठाकी हानि होना सम्भव है. इसी लिये स्वयं चाहे लंघन करे, परन्तु दूसरेको लंघन न कराना. स्वयं भोजन करके दूसरेको लंघन कराना अयोग्य ही है. भोजन आदिका अंतराय करना यह ढंढणकुमारादिककी भांति बहुत दुःसह है. .. सर्वपुरुषोंने तथा विशेषकर वणिग्जनोंने सर्वथा संप सलाह ही से अपना सर्वकार्य साधना चाहिये. कहा है कि-- यद्यपि साम, दाम, भेद व दंड ये कार्य साधनके चार उपाय प्रसिद्ध हैं, तथापि सामहीसे सर्वत्र कार्यसिद्धि होती है, शेष उपाय नाममात्रके हैं. कोई व्यक्ति तीक्ष्ण तथा बडा क्रूर हो, तो भी वह सामसे वश होजाता है । देखो ! जिव्हामें मधुरता होनेसे कठोर दांत भी दासकी भांति उसकी सेवा करते हैं.