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निर्णय हुए बिना मैं किस प्रकार भोजन करूं?" पश्चात् भोजनका थाल छोड कर राजा द्वार पर आया तथा दूसरा कोई दृष्टि में
आसे उसने गायको पूछा कि, " क्या किसीने तुझे कष्ट पहुंचाया है ? कष्ट पहुंचानेवाला कौन है ? उसे मुझे बता " तब गाय आगे चलने लगी व राजा भी उसके पीछे हो गया. गायने मरा हुआ बछडा दिखाया. राजाने कहा - " इस बछडे ऊपरसे जो घोडीको कुदाता हुआ गया है, वह मेरे सन्मुख प्रकट होवे. " परन्तु जब कोई कुछ न बोला तब राजानें पुनः कहा कि, "जब अपराधी प्रकट होगा तभी मैं भोजन करूंगा. "
उस दिन राजाको लंघन हुआ, तब सवेरे राजकुमारने कहा - " हे तात ! मैं अपराधी हूं. मुझे यथोचित दंड दो. " तदनन्तर राजाने स्मृतिके ज्ञाता पुरुषोंसे पूछा कि, " इसे क्या दंड देना चाहिये? " उन्होंने उत्तर दिया- " हे राजन्! राज्य के योग्य यह तेरा एक मात्र पुत्र है, अतएव इसके लिये क्या दंड बतावें ? " राजाने कहा - " किसका राज्य और किसका पुत्र ? मैं तो न्याय ही को सब वस्तुओंसे श्रेष्ठ मानता हूं. कहा है कि-दुष्टस्य दण्डः स्वजनस्य पूजा, न्यायेन कोशस्य च संप्रवृद्धिः । अपक्षपातो रिपुराष्ट्ररक्षा, पञ्चैव यज्ञाः कथिता नृपाणाम् ॥ १ ॥
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१ दुर्जनको दंड देना, २ सज्जनकी पूजा करना, ३ न्यायसे भंडारकी वृद्धि करना, ४ पक्षपात न रखना, और ५ शत्रुसे राज्य की रक्षा करना, ये ही राजाओंके लिये नित्य करने के