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(३४१) करना, तथा स्वयं किये हुए साधर्मिकवात्सल्यआदिमें न गिनना । क्योंकि उससे धर्मस्थानमें व्यर्थ दोष आता है।
बहुतसे लोग यात्राके निमित्त ' इतना द्रव्य खर्च करूंगा' इस तरह स्वीकार करके स्वीकृत रकम ही में से गाडीभाडा, खाना पीना आदि द्रव्य भी खर्च करके उसमें गिनते हैं, उन मूर्खलोगोंको ज्ञान नहीं कि, क्या गति होगी ? यात्राके निमित्त जितना द्रव्य माना हो, उतना देव, गुरु, आदिका द्रव्य होगया । वह द्रव्य जो अपने उपभोगमें लिया जावे तो देवादिद्रव्य भक्षण करनेका दोष क्यों न लगे ?
इस प्रकार जानते अथवा अजानते जो किसी प्रसंग पर देवादिद्रव्यका उपभोग होगया हो, उसकी आलोयणा समान(जितने द्रव्यका उपभोग अनुमानसे ध्यानमें आता हो, उसी प्रमाणमें) निजीद्रव्य देवादिद्रव्यमें डालना चाहिये । मृत्यु समय समीप आने पर तो यह आलोयणा अवश्य करना चाहिये, विवेकीमनुष्यने अपनी अल्पशक्ति हो तो धर्मके सात क्षेत्रों में अपनी शक्ति के अनुसार अल्पद्रव्य व्यय करना, परन्तु किसीका ऋण सिर पर न रखना, पाई पाई चुकती कर देना चाहिये, उसमें भी देव, ज्ञान और साधारण इन तीन खातोंका ऋण तो बिलकुल ही न रखना. ग्रंथकारने ही कहा है कि
ऋणं ह्येकक्षणं नैव, धार्यमाणेन कुत्र (शं क)चित् । देवादिविषयं रत्तु, कः कुर्याद तिदुस्सहम् ॥ १ ॥