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(३४३) श्यकसे शुद्ध द्वादशावर्त वन्दना करे. इस वन्दनाका फल बहुत बड़ा है. कहा है कि--
नीआगो खवे कम्म, उच्चागोअं निबंधए । सिढिलं कम्मगंठिं तु, वंदणेणं नरो करे ॥ १ ॥ तित्थयरत्तं सम्मत्त खाइअं सत्तमीइ तइआए ।
आउं वंदणएणं, बद्धं च दसारसीहेणं ॥ २ ।। मनुष्य श्रद्धासे वन्दना करे तो नीचगोत्रकर्मका क्षय करता है, उच्चगोत्र कर्म संचित करता है व कर्मकी दृढग्रंथिको शिथिल करता है. कृष्णने गुरुवन्दनासे सातवींके बदले तसिरी नरकका आयुष्य व तीर्थकर नामकर्म बांधा. तथा उसने क्षायिकसम्यक्त्व पाया. शीतलाचार्यने वन्दना करनेके लिये आये हुए, रात्रिको बाहर रहे हुए और रात्रिमें केवलज्ञान पाये हुए अपने चार भाणजोंको प्रथम क्रोधसे द्रव्यवन्दना करी, पश्चात् उनके वचनसे भाववंदना करने पर उसे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ.
गुरुवन्दन भी तीन प्रकारका है. भाष्यमें कहा है कि-- गुरुवन्दन तीन प्रकारका है. एक फेटाबन्दन, दूसरा थोभवन्दन और तीसरा द्वादशावर्त वन्दन. अकेला सिर नमावे, अथवा दोनों हाथ जोडना फेटावन्दन है, दो खमासणा दे वह दूसरा थोभवन्दन तथा बारह आवर्त, पच्चीस आवश्यकआदि विधि सहित दो खमासणा दे वह तीसरा द्वादशावर्त वन्दन