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कोई स्त्री दीक्षा लेने को तैयार होवे, तो उसे उन्हींको (साध्वियों को) सौंपना, जो साध्वियां अपना कोई आचार भूल जायँ, तो उनको स्मरण कराना, जो साध्वियां अन्यायमार्गमें जावें तो उनको रोकना, जिनका पग असन्मार्ग में पडगया हो, तो प्रथम उन्हें सदुपदेश देना, यदि वे शिक्षा न मानकर बारम्बार कुमार्गमें जावें, तो उनको कठोर वचन कहना तथा अन्य उपाय न होवे तो डंडादिसे शिक्षा करना. वैसे ही उचित वस्तु देकर उनकी सेवा करना चाहिये. इत्यादि.
सुश्रावक साधुमुनिराज के पास जाकर कुछ तो भी पढना चाहिये. कहा है कि -
46 अञ्जनस्य क्षयं दृष्ट्वा वल्मीकस्य वि (च) वर्द्धनम् । अवन्ध्यं दिवसं कुर्याद्दानाध्ययनकर्मसु ॥ १ ॥
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सन्तोषस्त्रिषु कर्त्तव्यः स्वदारे भाजने धते । त्रिषु चैव न कर्त्तव्यो, दाने चाध्ययने तपे || २ || गृहीत इव केशेषु, मृत्युना धर्ममाचरेत् । अजरामरवत्प्राज्ञ', विद्यामर्थञ्च चिन्तयेत् ॥ ३ ॥ जह जह सुयमवगाहइ, अइसयरस पसरसंजु अमपुत्र्यं । तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसंवेगसद्धाए ॥ ४ ॥ जो इह पढ{ अपुव्वं, स लहइ तित्थंकरत्तमन्नभवे | जो पुण पाढेइ परं सम्मसु तस्स किं भणिमो ? ॥ ५ ॥