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(३१८) इस वनमें रहना ? अतः सर्व पंख मुट्ठी में पकड कर एकदम ही उखाड लेना ठीक है." इस तरह निश्चय कर उस दिन जब मोर नाचने आया, तब एकमुट्ठीसे उसके पंख पकडने गया, इतने ही में मोर कौएका रूप करके उड गया और पूर्व एकत्रित नौसौ पंख भी चले गये ! कहा है कि
दैवमल्लंध्य यत्कार्य, क्रियते फलवन्न रत् ।
सरोऽभश्चातक नातं, गलरन्ध्रण गच्छति । १॥ देवकी मर्यादाका उल्लंघन करके जो कार्य किया जाय, वह सफल नहीं होता. देखो चातक जो सरोवरका जल पीता है वह पेटमें न उतर कर गलेमें रहे हुए छिद्रसे बाहर निकल जाता है । अंतमें "धिक्कार है मुझे ! कि मैंने व्यर्थ इतनी उतावल की" इस तरह विषाद करते, इधर उधर भटकते हुए उसने एक ज्ञानी गुरूको देखा. उनके पास जा, वन्दना करके उनको अपने पूर्व कर्मका स्वरूप पूछा. ज्ञानीने भी यथावत् कह सुनाया. जिसे सुन पूर्वमें देवद्रव्य पर अपनी आजीविका करी उसका प्रायश्चित मुनिराजसे मांगा. मुनिराजने कहा कि, "जितना देवद्रव्य पूर्वभवमें तूने व्यवहार में लिया, उससे भी अधिक द्रव्य देवद्रव्यखाता (फंड) में दे, और देवद्रव्यकी रक्षा तथा उसकी वृद्धि आदि यथाशक्ति कर, ताकि तेरा दुष्कर्म दूर होगा, तथा परिपूर्ण भोग, ऋद्धि और सुखका लाभ होगा." यह सुन निष्पुण्यकने ज्ञानी गुरुके पास नियम लिया कि, "मैंने पूर्व