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श्रावकधर्मका पालन कर मृत्यु के बाद वह स्वर्गको गई । किन्तु बुद्धिपूर्वक अपराध के दोषसे वहां नीच देवी हुई व वहांसे च्यव कर किसी धनाढ्य व पुत्रहीन श्रेष्ठ के यहां मान्य पुत्रीरूपमें उत्पन्न हुई । परन्तु जिस समय वह गर्भ में आई उस समय आकस्मिक परचक्रका वडा भय आनेसे उसकी माताका सीमन्तोत्सव न हुआ | तथा जन्मोत्सव, छडीका जागरिकोत्सव, नामकरणका उत्सव आदिकी पिताने आडंबर पूर्वक करने की तैयारी की थी, किन्तु राजा तथा मंत्री आदि बडे २ लोगों के घरमें शोक उत्पन्न होने के कारण वे न हो सके। वैसे ही श्रेष्ठीने रत्नजडित सुवर्णके बहुत से अलंकार प्रसन्नतापूर्वक बनवाये थे, परन्तु चौरादिकके भयसे वह कन्या एक दिन भी न पहिर सकी । वह माबापको तथा अन्यलोगोंको भी बडी मान्य थी, तथापि पूर्वकर्म के दोषसे उसको खाने पीने, पहिरने, ओढनेआदिकी वस्तुएं प्रायः ऐसी मिलती थी कि जो सामान्यमनुष्य को भी सुखपूर्वक मिल सकती हैं। कहा है कि - "हे सागर ! तू रत्नाकर कहलाता है, व उसीसे तू रत्नोंसे परिपूर्ण है, तथापि मेरे हाथ में मेंडक आया ! यह तेरा दोष नहीं बल्कि मेरे पूर्वकर्मका दोष है" । पश्चात् श्रेष्ठिने “ इस पुत्रीका एक भी उत्सव न हुआ यह विचार कर बडे आडंबर से उसका लग्नमहोत्सव करना प्रारंभ किया, किन्तु लग्न समीप आते ही उस कन्याकी माता अकस्मात् मृत्युको प्राप्त हुई ! जिससे बिलकुल
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