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उपवास होगये तब देवाने पुण्यसारको तो चिंतामणी रत्न दिया, कर्मसार पश्चाताप करने लगा, तब पुण्यसारने कहा- 'भाई ! विषाद न कर! इस चिन्तामणिरत्नसे तेरी कार्य सिद्धि होगी. तदनंतर दोनों भाई हर्षित हो वापस लौटे, व एक नौका पर चढे रात्रिको पूर्णचन्द्रका उदय हुआ, तब बड़े भाईने कहा-- " भाई ! चिन्तामणि रत्न निकाल, देखना चाहिये कि इस रत्नका तेज अधिक है कि चन्द्रमाका तेज अधिक है?" नौकाके किनारे पर बैठे हुए छोटे भाईने दुर्दैवकी प्रेरणासे उक्त रत्न हाथमें लिया तथा क्षणमात्र रत्न ऊपर व क्षणमात्र चंद्रमा ऊपर दृष्टि करते वह रत्न समुद्रमें गिर पडा. जिससे पुण्यसारके सर्व मनोरथ भंग होगये. अन्तमें दोनों भाई अपने ग्रामको आये। ___एक समय उन दोनोंने ज्ञानी मुनिराजको अपना पूर्वभव पूछा. तो मुनिराजने कहा- "चंद्रपुर नगरमें जिनदत्त और जिनदास नामक परमश्रावक श्रेष्ठी रहते थे. एक समय श्रावकोंने सर्व ज्ञानद्रव्य जिनदत्तश्रेष्ठीको व साधारणद्रव्य जिनदासश्रेष्ठीको रक्षण करनेके हेतु सौंपा. वे दोनों श्रेष्ठी उसकी भली भांति रक्षा करते थे। एक दिन जिनदत्तश्रेष्टीने अपने लिये किसी लेखकसे पुस्तक लिखवाई और पासमें अन्य द्रव्य न होनेसे 'यह भी ज्ञान ही का काम हैं यह विचार कर ज्ञानद्रव्यमें से बारह द्रम्म लेखकको दे दिये.
१ बीस कोडीकी एक कांकणी, चार कांकणीका एक पण, और सोलह पणका एक दम्म होता है।